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कविता

फूल चंपा के

रजनी मोरवाल


फूल चंपा के बिछुड़कर शाख से,
गिर रहे हैं जो हरे दालान में।

प्रश्न मन में कौंधता है रोज यह
गंध क्या बाकी बची होगी अभी?
ये जवाँ कलियाँ चटखकर हैं गिरी
या हवा के संग बहकी हैं सभी?
टहनियों का ख्वाब थी जो कल तलक
इस कदर बिखरी पड़ी अपमान में।

बीनती हो क्यों, अगर जीवन नहीं
पूछते हैं लोग अक्सर चाव से,
मैं उन्हें कहती कि नाता स्नेह का
जुड़ गया है प्रकृति के सद्भाव से,
गैर की खातिर खिला करते सदा
भेंट चढ़ते दूसरों की शान में।

क्षणिक ही जीवन मिला है पुष्प को
भोर से लेकर अँधेरी शाम तक,
जन्म हो या फिर मरण हर काम में
पुष्प को मिलता नहीं विश्राम तक,
उम्र की लघुता कहाँ का प्रश्न है
जिंदगी गुजरे अगर सम्मान में।


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